Saturday, 15 September 2012

                खुद 

सपने 'खुद' ने कुछ देखे थे, कुछ बुने थे;
चाहत उसकी थी आसमान को छूने की;
कुछ राग नया था उसे बनाना ,
था नया कुछ कर दिखाना,
'खुद' को चाहत थी 'खुद' की पहचान बनाने की।

'खुद' को अब 'खुद' खोज रहा है,
ये 'खुद' खो न जाने कहाँ  गया है।
किसी अनजान रास्ते  पे शायद सो गया है।
अपनों की भीड़ में 'खुद' गुमशुदा है।
खबर किसी को नहीं है इस गुमशुदा की।

                  बदलाव 

 जी मचल रहा है कुछ पाने को, कुछ खोने को।
सपना मन कुछ बुन रहा है कुछ हँसने को, कुछ रोने को।

ये हँसना रोना कुछ ऐसा है,
जैसे पतझड़ में सावन की तरह ,
दिल में धड़कन की तरह 
फिर साज से राग बनाने जैसा है।

लगता है जैसे कुछ अलग सा होने वाला है,
अभी बादल गड़जने वाले हैं , दिल का ताड़ छेड़ने वाले हैं,
ये ज्ञान बदलने वाला है विज्ञान बदलने वाला है।

ये तरंग है उमंग का  उल्लास का ,
ये तो बस संकेत है बदलाव के विश्वास का।